आँसूओं की महिमा

आँसू जब तक आँखों में हैं , वे विज्ञान और कला के साझे हैं। जैसे ही वे निचली पलक से नीचे ढलके कि उन पर कला का एकाधिकार हुआ।

चित्र में एक वायलिनिस्ट-छात्र अपने दिवंगत गुरु के लिए बजाता हुआ।



आँसुओं पर काव्य का अम्बार है। वे पहचाने तभी जाते हैं बहुधा , जब चेहरे पर पानी की लकीरें खींचते हैं। यद्यपि साहित्यशिल्पी उन्हें आँखों के सरोवरों के चढ़ाव-उतार में भी पढ़ लेते हैं ; लेकिन वहाँ उन्हें अन्वेषित करने में विज्ञान भी लगा हुआ है। आँसू उसके लिए केवल स्वच्छक हैं , जिनके कारण आँखों की सुरक्षा सम्पन्न हुआ करती है।

आँसुओं में तमाम रसायन हैं , जो जीवाणु-मारक हैं। वे नित्य अश्रुग्रन्थियों में बनते और आँखों को भिगोते रहते हैं। आँखें अश्रुस्नात हैं , तभी वे स्वच्छ हैं। अगर वे अश्रुहीन हुईं , तो रोगिणी भी होंगी। लगातार भीगना और भीगते रहना उनकी सेहत के लिए ज़रूरी है।

आँसुओं के लिए चेहरा कोई रास्ता नहीं है। उनके लिए एक मार्ग नासिका में खुलता है। वहाँ से उन्हें नाक से होते हुए मुँह में जाना है और फिर आमाशय में। यही उनकी स्वाभाविक गति है। नेत्र-स्वच्छक की अन्तिम परिणति जठर-ज्वाला में भस्मीभूत होना है।

लोग लेकिन आँखों की सफ़ाई के लिए आँसुओं को नहीं जानते। वे भावोद्गार के लिए उनसे परिचित हैं। आँसू लगातार नेत्र-नासिका-मार्ग में बहने के लिए प्रतिबद्ध हैं ; लेकिन कई बार वे चेहरे के भूरे मैदानों की गेटक्रैशिंग भी करते हैं। जिनमें यह मार्ग-विचलन अधिक होता है , वे ही भावनाशील कहलाते हैं। लेकिन इस अश्रुविचलन के कई अपवाद भी हैं : कुछ अभावुक आँसू भी चेहरे पर गाहे-बगाहे आ सकते हैं ; कई बार भावना अभिनीत भी हो सकती है , प्राकृतिक नहीं।

इन सबके बाद रोने के ढेरों फ़ायदे भी हैं। आँखों की किरकिरियाँ आँसुओं की धार में बह जाती हैं। पर रुदन सहज इतना है कि इसके लिए सरल होना पड़ता है। मनुष्य जटिल हुआ नहीं कि अश्रुगंगा ऊपर ही उलझकर रह गयी।

जिनमें छलकन अधिक है , उनमें उलझन कम है। जिन्हें उलझन अधिक है , वे छलकन की कमी के मारे हैं।

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