आपके पाँव बहुत खूबसूरत है इन्हें ज़मीन पर मत उतारिये, मैले हो जाएंगे ...

राजकुमार पाकीज़ा में मीना कुमारी को पाँव नीचे न रखने को कह रहे हैं। उन्होंने प्रोप्रियोसेप्शन पर एस्थेटिक्स को तरजीह दे दी है।



पाँव किसलिए हैं ?
आप कहेंगे चलने के लिए। लेकिन चलने के मूल में भी भूमिबोध है। चलना भी वस्तुतः नीचे भूमि के बदलते अनुभवों को कहा जाता है। पाँवों-तले नयी जमीन आती रहती है , भूमिबोध बदलता रहता है। इसी नित्य बदलते भूमिबोध को हम अधिक चिकना और छोटा नाम दे डालते हैं। स्निग्ध-क्षिप्र शब्द 'चाल'।

चलना हमें पशुवृत्ति से अलंकृत करता है , पेड़-पौधों से हमें विलग करता है। सभी जानवर चलते हैं --- लेकिन कब-कितना चलना है और कब रुकना है --- इस विषय में अलग -अलग पशुवृत्तियाँ अलग-अलग चुनाव करती हैं। मनुष्य सबसे अधिक चुनकर चल सकता है , वह सबसे अधिक सोचकर ठहर सकता है --- ये ही वे वजहें हैं , जिन कारण उसे पशुओं से बेहतर माना गया। अब यह बात अलग है कि कोई अपनी मनुष्यगत पहचान से साथ न्याय करे अथवा न करे।

पाँवों का काम नीचे की ज़मीन पर ठहरना और उसे बदलना है। राजकुमार मीना कुमारी के पाँवों-तले ज़मीन नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि पाँव भूमिबोध भूल जाएँ। वे सुन्दर हैं और सुन्दरता तभी खिलती है , जब उसे भूमिबोध न हो। सौन्दर्य मिट्टी से मैला होता है। उसकी खाल मोटी और खुरदुरी हो जाती है। उसका रूप लालिम से धूलिम हो जाता है। ऐसे में राजकुमार चाहते हैं कि मीना कुमारी के पैर कार्यपरकता से हटकर रूपपरक-भर बने रहें।

मीना कुमारी के पाँव पहले से सुन्दर हैं। उनका भूमिबोध उतना नहीं रहा है , जितना असुन्दर पाँवों का हुआ करता है। लेकिन राजकुमार को इस भूमिबोध को एकदम शून्य करना है। भूमि और प्रेम इस तरह से पाँवों के लिए दो अलग-अलग चुने जा सकते सिरे हैं। भूमि चाहिए , प्रेम हट सकता है। प्रेम मिलेगा , तो भूमि त्याग दो।

अभी-अभी एक चिकित्सक-मित्र से पाँवों के बारे में बात चल रही थी। भूमिबोध करने वाले इन ग़रीब जोड़ों को रक्त कम मिलता है। हृदय से दूरी अधिक है और रक्तवाहिनियाँ बढ़ती उम्र के साथ सिकुड़ जाती हैं। तन्त्रिकाओं की अनुभूति भी इनकी अन्य कई अंगों की तुलना में घट जाती है। नतीजन पाँवों के घाव धीरे और कई बार अधूरे भरते हैं। वे समय लेते हैं और कई बार नासूर भी बन जाते हैं।

भूमिबोध किन्तु पैरों को पैर बनाता है। वे नहीं चलेंगे तो गुलाबी किन्तु कमज़ोर रहेंगे। उनको रक्त भरपूर चाहे मिले , वे किसी काम के नहीं रहेंगे। चलना-दौड़ना तो दूर , अचानक कभी खड़े होना पड़ा तो वे लड़खड़ा पड़ेंगे।
मीना कुमारी को भी राजकुमार के पैरों की स्थिति देखनी चाहिए। क्या वे भी उतने ही खूबसूरत हैं ? नहीं हैं , तो क्यों नहीं हैं ? उनका भूमि-बोध कितना है और सौन्दर्य कितना ? और अगर उनका भूमिबोध मीना कुमारी के पैरों से अधिक है और सौन्दर्य उनसे कम , तो ऐसा पक्षपात किस लिए ? क्या पुरुष-पैरों को भूमिबोध अधिक चाहिए होता है और स्त्री-पैरों को कम ? क्या नर-पादों को एस्थेटिक्स की कम दरकार होती है और मादा-पादों को अधिक ?

सौन्दर्य-प्रसाधनों की अंग-होड़ में पाँव बेचारे दिग्भ्रमित हैं। उनसे पूछने का मेरा मन है कि गुलाबी-कोमल दिखने के फेर में चलना-दौड़ना याद है अब तक या भुला दिया ?

दिल से जो दूर रहता हो , उसे सच्चाई के उतना समीप रहना चाहिए। ज़मीनी धोखे कम मिलते हैं।

( लेख पुराना है और इसे हास-परिहास से अधिक कुछ न जानिए। ) 

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