सीता माता के पूर्व जन्म की कथा

बृहस्पति के पुत्र थे ब्रह्मऋषि कुशध्वज और कुशध्वज की पुत्री हुई वेदवती। वेदवती प्रकांड विदुषी और विलक्षण खूबसूरत थीं। अपने पिता एवं माता की ही तरह वह भी भगवान विष्णु की अनन्य भक्त थीं। वेदवती, विष्णु जी से विवाह करना चाहती थीं इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए वेदवती ने कठोर तपस्या करने का निर्णय लिया।

एक दिन जब वेदवती एकांत में अपनी तपस्या कर रही थी तभी उस समय का सबसे शक्तिशाली और खतरनाक असुर रावण वहां से गुजरा। रावण ने रुक कर वेदवती को विवाह का प्रस्ताव दिया लेकिन वेदवती से शालीनता से मना करते हुए कहा कि वो विष्णु जी की अर्धांगिनी हैं। विष्णु का नाम सुनते ही रावण क्रोध में आ गया और वो वेदवती के केश पकड़ कर उसे घसीटता हुआ ले जाने लगा। इस बात से क्रोधित होकर वेदवती ने अपने केश काट दिए साथ ही अपनी पवित्रता भंग करने की कोशिश करने पर उन्होंने रावण को श्राप दिया कि, तेरे हाथ में जो मेरे केश है वो रक्त के प्यासे हैं, ये ही तेरी मृत्यु का कारण बनेंगे। ये कह कर वेदवती ने अग्नि जला कर उसमें प्रवेश कर लिया।

ब्रह्मवैवर्त पुराण कहता है कि परेशान रावण ने तुरन्त ही प्रख्यात महर्षियों को बुलाया और अपने हाथ में जकड़े हुए केशों को दिखाते हुए वेदवती की बात को बताया और कहा कि अविलम्ब इस श्राप की काट करिये, अन्यथा आप लोगों को मृत्युदंड मिलेगा। तब ऋषियों के उपाय स्वरूप एक घड़ा आया जिसमें उन केशों को डाल के सभी ऋषियों ने अपने रक्त की कुछ बूंदें उसमें गिराई जिससे रक्त के प्यासे केशों के श्राप को खत्म किया जा सके। अब परेशानी घड़े को गाड़ने की आयी क्योंकि कहीं भी पृथ्वी उस घड़े को स्वीकार नहीं कर पा रही थी और पाताल पर ले जाने पर पृथ्वी पर बाढ़ आने का खतरा था। एक ऋषि ने सुझाया राजा जनक के तप बल के आगे ये घड़ा निष्प्रभावी हो जाएगा इसलिए उनके राज्य में गाड़ना चाहिए।

घड़ा राजा जनक के राज्य की मिट्टी में प्रवेश भी किया और कुछ समय बाद हल की चोट से फिर निकला भी...

जगतमाता, करुणामयी, मर्यादा और नैतिकता की अग्नि, त्रिकालदर्शी, माता जानकी को प्रणाम है।

जय सियाराम 💐

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